वयस्क अविवाहित बेटी यदि किसी शारीरिक या मानसिक असमानता से पीड़ित नहीं है तो धारा 125 सीआरपीसी के तहत पिता से भरण पोषण का दावा नहीं कर सकती: SC
नमस्कार दोस्तों,
अभिलाषा Vs. प्रकाश 20 सितंबर 2020
भरण पोषण के लिए, जब एक महिला ने उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ़ अपने पति के पर सीआरपीसी की धारा 125 के तहत अपने और अपने तीन बच्चों, दो बेटों और एक बेटी के रखरखाव के लिए दिनांक 17.02.2002 न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी, रेवाड़ी के समक्ष अपीलार्थी ने एक आवेदन प्रस्तुत किया था। विद्वान न्यायिक मजिस्ट्रेट ने दिनांक 16 फरवरी 2011 को अपने निर्णय में (सबसे छोटी बेटी, जिसका नाम अभिलाषा है, वर्तमान में वह अपीलकर्ता है) उस महिला व दो बच्चों के भरण पोषण के लिए उसके आवेदन को न्यायिक मजिस्ट्रेट ने खारिज कर दिया था, परन्तु उसकी बेटी के भरण पोषण के दावे को स्वीकार कर लिया था क्योंकि वह नाबालिग थी, परन्तु वह सीआरपीसी की धारा 125 के अनुसार वयस्क होने पर ही भरण पोषण की हकदार थी, अभिलाषा के वयस्क होने तक वह भरण पोषण के हकदार थी, उसके बाद नहीं, इसलिए सभी अपीलार्थी को शामिल करते हुए चारों आवेदकों ने न्यायालय के साथ साथ ही न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी के आदेश को चुनौती देते हुए, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट के समक्ष आवेदन प्रस्तुत किया। उच्च न्यायालय ने आक्षेपित निर्णय द्वारा दिनांक 16 फरवरी 2018 को अर्जी खारिज कर दी गई।
महिला द्वारा सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की गई थी। अपीलकर्ता को गुजारा भत्ता दिया जाए या नहीं, यह सवाल सुप्रीम कोर्ट को सौंपा गया था। भरण पोषण के नियम के अनुसार एक पुरुष को यह कर्तव्य सौंपा गया है कि वह अपने आश्रित पत्नी, बच्चों या अपने माता पिता को उनके जीवन यापन के लिए भरण पोषण करें। भरण पोषण के कानून की चर्चा केवल पर्सनल लॉ में ही नहीं बल्कि क्रिमिनल प्रोसीज़र कोड,1973 में भी की गई है।
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तीन जजों की बेंच जिसकी अध्यक्षता जस्टिस अशोक भूषण ने कहा है कि :-
हिंदू दत्तक एवं भरण पोषण अधिनियम ,1956 की धारा 20 (3) पर भरोसा करें तो एक अविवाहित हिंदू बेटी अपने पिता से भरण पोषण का दावा कर सकती हैं, बशर्ते कि वह यह साबित करे कि वह अपना भरण पोषण करने में असमर्थ हैं। जिस अधिकार के लिये उसका आवेदन /वाद अधिनियम की धारा 20 के तहत होना चाहिए।
कोर्ट ने कहा कि विधायिका ने कभी भी धारा 125 सीआरपीसी के तहत क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने की स्थिति में कोर्ट पर जिम्मेदारी डालने का विचार नहीं किया कि वह हिंदू दत्तक और भरण पोषण अधिनियम 1956 के तहत विचार किए गए दावों का निर्धारण किया।
इस मामले में अपीलकर्ता की दलील यह थी कि हिंदू दत्तक और भरण पोषण अधिनियम 1956 की धारा 20 के अनुसार एक व्यक्ति का दायित्व है, कि वह अपनी अविवाहित बेटी का जब तक कि वह विवाहित नहीं हो जाती है, तब तक भरण पोषण करें।
अपीलकर्ता जब नाबालिग थी, उसने धारा 125 सीआरपीसी के तहत न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी रेवाड़ी के समक्ष एक आवेदन किया था। मजिस्ट्रेट ने अपीलकर्ता का दावा यह कहकर निस्तारित कर दिया कि जब तक वह वयस्क नहीं हो जाती भरण पोषण का दावा नहीं कर सकती है।
हाईकोर्ट ने भी यह आदेश बरकरार रखा।
SC ने इस अपील पर विचार किया कि क्या एक हिंदू और अ़विवाहित बेटी पिता से 125 सीआरपीसी के तहत, केवल तब भरण पोषण का दावा करने की हकदार हैं जब तक वह वयस्क नहीं हो जाती या वह अविवाहित रहने तक भरण पोषण का दावा कर सकती है ?
अपीलकर्ता का तर्क यह था कि भले ही वह अधिनियम 1956 की धारा 20 की बिनाह पर किसी शारीरिक या मानसिक असामान्यता या चोट से पीड़ित नहीं है, जब तक विवाहित नहीं हो जाती है, भरण पोषण का दावा करने की हकदार है।
इसमें 125 सीआरपीसी कानून के स्पष्ट प्रावधानो के अलावा पराजित होने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।
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अपीलकर्ता ने जगदीश जुगतावत Vs. मंजुलता व अन्य (2002)
कोर्ट ने जगदीश जुगतावत (सुप्ता) के फैसले को धारा 125 सीआरपीसी के तहत पिता के खिलाफ़ बेटी द्वारा कार्यवाही में अनुपात निर्धारित करने के लिए नहीं पढ़ा जा सकता है, कि अधिनियम 1956 की धारा 20 (3) के तहत पिता पर अविवाहित बेटी के भरण पोषण का दायित्व है और उसी के अनुसार बेटी भरण पोषण की हकदार है। अधिनियम की धारा 20 (3) का संदर्भ देते हुए:-
कोर्ट ने कहा, हिंदू दत्तक और भरण पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 20 (3) बच्चों और वृद्ध माता-पिता के भरण पोषण के संदर्भ में हिंदू कानून के सिद्धांतों की मान्यता है धारा 20 (3) एक हिंदू के वैधानिक दायित्व का निर्धारण करती है, कि वह अपनी अविवाहित बेटी का जो अपनी कमाई से या अन्य संपत्ति से अपना भरण पोषण करने में अक्षम है, का भरण पोषण करें, जो कि खुद का भरण पोषण करने में सक्षम नहीं है का स्पष्ट वैधानिक दायित्व डाला है।
धारा 20 के तहत पिता से भरण पोषण का दावा करने का अविवाहित बेटी का अधिकार यदि वह अपने भरण पोषण में सक्षम नहीं है, निरपेक्ष है और धारा 20 के तहत अविवाहित बेटी को दिया गया अधिकार व्यक्तिगत का कानून के तहत दिया गया है, जिसे वह अपने पिता के खिलाफ़ बखूबी लागू कर सकती है।
जगदीश जुगतावत (सुप्ता) अधिनियम 1956 की धारा 20 (3) के तहत एक नाबालिग लड़की के अधिकार को मान्यता दी की वह अपने पिता पर व्यस्क होने के बाद विवाहित होने तक भरण पोषण का दावा कर सकती है। अविवाहित बेटी स्पष्ट रूप से अपने पिता से भरण पोषण की हकदार हैं जब तक की विवाहित नहीं हो जाए।
कोर्ट ने नूर सबा खातून Vs. मोहम्मद कासिम (1946)
इसमें 125 सीआरपीसी कानून के स्पष्ट प्रावधानो के अलावा पराजित होने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।
निर्णय:-
हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरण पोषण अधिनियम 1956 की धारा 20 (3) के अधीन अविवाहित पुत्री वयस्कता प्राप्त करने के पश्चात भी अपने पिता से भरण पोषण प्राप्त करने की हकदार है। यह उसका अधिनियम की धारा 20 (3) के अधीन पूर्ण सांविधिक अधिकार है, जिसे सिविल न्यायालय द्वारा ही परिवर्तित कराया जा सकता है कि अविवाहित पुत्री वयस्कता प्राप्त करने के पश्चात धारा 125 सीआरपीसी के अधीन भरण पोषण प्राप्त करने के लिए दावा करने की हकदार नहीं है क्योंकि यह धारा केवल उन बच्चों को भरण पोषण का अधिकार देती है जो किसी भी शारीरिक या मानसिक, असामान्य या चोट के कारण अपना भरण पोषण करने में असमर्थ हैं, इसलिए मामला पोषणीय नहीं है और इसलिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपील खारिज कर दी जाती है।
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